हम तो वहीँ सही थे
जब सुबह सुबह मम्मी गुस्से से उठाती थी
कभी कभी चपत भी लगाती थी
लेकिन दही और मक्खन प्यार से खिलाती थी
नहलाती थी,और पापा की डांट से बचाती थी
ये दिन थे बचपन के ,गाँव के घर के
थोड़े बड़े हुए छोटे शहर पहुंचे
पढना था ,कलेक्टर बनना था
सपना था पापा का मेरा नहीं
मैं तो घुमक्कड़ी था बेपरवाह दुनियां से
लेकिन भारी भारी किताबों के बस्ते नें इस घुमक्कड़ी को रस्ते पर ला दिया
और पापा ने दिल्ली में एड्मीसन करा दिया
लो भैय्या आ गए दिल्ली ,
किस्मत के बेपरवाह सिपाही
पता ना था क्या करना है,
पर पता था कि कुछ तो बड़ा करना है
लेकिन ये शहर अजीब था
कोई नहीं किसी के करीब था
गाँव के दोस्त याद आते थे
जो बात बात पे मुझे हसते और रुलाते थे
वो शिक्षक भी बहुत याद आते थे
जो सरस्वती को माता और हमको अपना बेटा कहकर बुलाते थे
उनका वो प्यार,उनका वो पाठ,उनकी वो सीख,उनका वो ज्ञान
कि बेटा अन्याय के सामने ना झुकना , चाहे सर कट जाये ,चाहे दम निकल जाये
आज भी मेरे अन्दर समाया हुआ है
लेकिन यहाँ के हालात कुछ और हैं ..........................
पापा का वो सपना कि बेटा वहां से ,
उच्च शिक्षकों से कुछ पढ़ेगा ,
कुछ अपने अन्दर संगृहीत करेगा
अब कहीं धूमिल होता जा रहा है,
शून्य में विलीन होता जा रहा है,
अपना अस्तित्व खोता जा रहा है
यहाँ पर शिक्षा तो कुटिलों के हाथ में
जो नाम की है,
दाम की है,
झूंठी शान की है
ज्ञान की कहाँ
जो कहते कुछ
और करते कुछ है
जो आदर्श थे कभी वो झूंठ बोल रहे हैं
भले और बुरे का भेद भूल रहे हैं
शिक्षा को राजनीति की तरह खेल रहे हैं
सरकार भी इनकी पोशक है
तो क्या यहाँ हम अपने पुराने शिक्षक की सीख को
बनाये रख पायेंगे
सच बोल पायेंगे
रोटी का मामला है
पेट की भूँख है
जि़न्दगी का संघर्ष् है,
या फिर इनके जैसे अस्तित्व विहीन हो जायेंगे
लेकिन फैज़ के शब्द कि-
"बोल, कि थोड़ा वक्त बहुत है
ज़िस्मों ज़ुबां की मौत से पहले
बोल, कि सच ज़िन्दा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले"
ताकत देते हैं
अभी भी सोचता हूं
हम तो वहीँ सही थे
गाँव में
पेड की छावं में
माॉ के आंचल में
इस छल कपट और धूर्तता से दूर
मक्खन और दही की मटकी में
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