SHABDON KI DUNIYA MEI AAPKA SWAGAT

Tuesday, April 14, 2020

गुमनाम लाशे और हड्डियाँ


मौत कहानी कहती है 
गुमनाम कहानी  कहानी कहती है  उनके होने की जो हो सकते थे  पर हो न सके  इस जग में शामिल शामिल अपने घर की खुशियों में अपने बच्चों को चलते देखने  में अपनी माँ को दफ़नाने में  अपने जहाँ में  घुमने में लेकिन वो भी  कहीं विचरण करने चले गए  बहुत दिनों से बहुत बरस से बहुत रातों से  बहुत दिनों से उन रातों से जिनको उसकी बीबी याद करती है याद करती है  हर दिन रात कि उसका पिया रूठ गया  किसी बात पे वो लौट आएगा  गुस्सा ठंडा होने पर लौट आएगा पिछले दस सालों से वो इसी सोच में बैठी है सोच रही है  बस वो अब आने वाले हैं  दरवाजे पर हवा कि दस्तक भी  उसके आने का आभास करा देती है पिछले दस सालों से  किसी के पैरों कि आहट ऐसी लगती है कि बस अब तो गुस्सा ठंडा हो ही गया  भागकर खाने को छोड़ कर दरवाजा खोलती है बिना धीरज के  पगली सी होकर अस्तित्वविहीन होकर अपने साथी से दस साल बाद मिलने कि  लालसा जो है दरवाजे कि कुण्डी को श्पर्श  करते ही खुदा से दुआ करती है कि वो ही हों अब बहुत हो चुकी है उसकी जुदाई अब जिया नहीं जाता उसके बिना  अब ज़िन्दगी जहन्नुम बनती जा रहा है उसके सिवा तन्हाई में आज तो दरवाजे खुलते ही  ये तन्हाई  डर के भाग जाएगी उसके इस घर से अँधियारा मिट जायेगा और हर तरफ किरण उजियारे कि होगी उसके बच्चों को उसके अब्बू मिल जायेंगे उसकी माँ को उसका बेटा उसके घर को उसका मालिक उसके बिस्तर को उसका सोने वाला  उसकी साईकिल को उसका सवार उसके कपड़ों को पहनने वाला उसकी थाली को खाना खाने वाला उसके जूतों को पॉंव और  इस घर एक नई आत्मा लेकिन हाय री किस्मत उसने आज फिर से धोखा दे दिया हर रोज़ की तरह हर शाम की तरह हर रात की तरफ हर अंधियारे और उजियारे की तरह वहां कोई न है दरवाजे के बाहर कोई न है है तो सिर्फ बहुत सारे बन्दूक धारी जो उसकी "हिफाज़त" के लिए है कुछ दस साल बाद और वो खड़ी है  कुछ कब्रों के पास कुछ आठ हज़ार कब्रों के पास कब्रें  जिनका नाम नहीं है जिनकी पहचान नहीं है शायद इन कब्रों में से इक कब्र से उसका भी नाता है पर अभी तो सब कब्रें उसी की हैं शायद उसके शौहर की आठ हज़ार कब्रें ये गुमनाम कब्रें कुछ बोलना चाहती हैं  लेकिन बोल नहीं पा रहीं हैं बहुत दिनों से खाना जो न मिला है इन कब्रों को बोलना है वो कुछ कहना चाहती है कहानी अपने होने कि कि वो कैसे हैं कहानी उनके होने की  कि वो गुमनाम क्यों हैं उनके पास कोई नाम क्यों नहीं आखिर वो कौन हैं ये कब्रें बोलेंगी हर एक कब्र से  ३-३-लाशें बोलेंगी हर एक लाश की हर एक हड्डी बोलेगी टूटी  हड्डी साबुत हड्डी गोली लगी हड्डी कटी हड्डी बूढी हड्डी हिन्दू हड्डी मुस्लिम हड्डी औरत हड्डी बच्चों कि हड्डी जवान कि हड्डी उसके शौहर कि हड्डी शायद इक सिपाही की भी हड्डी ये सब हड्डियाँ  बोलेंगी तो  लेकिन इक शर्त है उमके बोलने की उन्हें खाना चाहिए,भूंख मिटाने को उन्हें पानी चाहिए,प्यास बुझाने को उन्हें कपडे चाहिए,ठण्ड बचाने को उन्हें बिस्तर चाहिए ,आराम फरमाने को सुरक्षा चाहिए, सत्ता से बहुत दिन से
वो भूँखा है प्यासा है नींदग्रस्त है बन्दूक की नोंक पर है ये हड्डियाँ  जिन्दा हड्डियाँ भी  मौत से डरती हैं वो नहीं चाहती कि कोई सरकार उन्हें मार दे नस्तेनाबूद कर दे अब हमारी बारी है उन हड्डियों को  रोटी पानी बिस्तर सुरक्षा देना होगा  सब देना होगा उनका उनके हड्डियाँ होने का  राज़ खोलने देना होगा सबको देशो्ं कि करतूत को कहने देने होगा तभी ये हड्डियाँ आराम से
शांति से अमन से  खा पाएंगीं पी पाएंगीं सो पाएंगीं ताकि  कल और हड्डियाँ  गुमनाम न हों बेनाम न हों

काश हम बच्चे रहे होते


काश हम बच्चे रहे  होते
फिर तो कोई लफड़े झगडे ही न होते होते भी तो कम देर के
और हम फिर से एक साथ लड झगड खेल रहे होते काश हम सब बच्चे ही रहे  होते गले में डाले हाथ गलियों में फिर रहे होते मोहल्ले के यारों के साथ खेल रहे होते कंचे तो फिर दिल्ली, गुजरात में दंगे  नहीं होते काश हम सब बच्चे रहे होते नाना -नानी के साथ  मेले गए होते  और झूल रहे होते झूला टॉफी के पैसे उन से ले लिए होते तो फिर कलमाड़ी और राजा बन कर  घोटाले नहीं कर रहे होते काश हम बच्चे रहे होते रात जब आती अंधियारी तो मम्मी से चंदा मामा के साथ  लोरीयां सुन रहे होते और रात में घर से निकल हंगामा नहीं कर रहे होते काश हम बच्चे रहे होते घर से निकलते ही माँ काजल का टीका लगा देती और खीर खाने के बाद ड़ाल देती मूंह में चूल्हे की राख काश हम बच्चे रहे होते अब नज़र लगने लगी है  इस दुनियां में मुझे  माँ काला टीका न लगाती जब से बाहर बम फटने लगे हैं तब से  दंगे होने लगे  है तब से  माँ ने मुंह में राख न डाली है जब  से बच्चे न रहे हैं जब से बड़े जो हुयें है तब से  काश हम बच्चे रहे होते  मन के सच्चे रहे होते  इन अंधियारों के भाग नहीं बन रहे होते उजियारों की महफ़िल के साथी बन गए होते 

इस दीवाली

इस दीवाली पे मकसद हो हमारा
सबके घर हो उजियारा

उन के घर भी जिन के घर को
हमने अपनी रौशनी के खातिर है उजाडा

उनके घर भी जिनके घर
जो रहे हैं हमेशा से बेसहारा

उनके घर भी
जिनको जीत में कहीं
भुला दिया गया
अभिमान के खातिर
आर्यन के खातिर
यज्ञं के खातिर
जिनको बना डाला
शूद्र ,अति शूद्र और चान्डाला

अपनी दीवाली के खातिर
जिनका निकाल दिया हमने दीवाला
चाहे फिर वो रावन हो या बाली बल बाला
या फिर हो छत्तीसगढ़ ,झारखण्ड के वन का रखवाला

अब
फिर से मौका है
उन सब के घर फ़ैलाने का उजाला
उनके घर जिनके घर
अभी तक फैलाया है
हमने सिर्फ अँधियारा
आओ
भैय्या
फैलाये इस जग में
अपनी अपनी
सामर्थ्य का
'' उजियारा''
देश के चौराहे पर 
खड़ा था 
दिसंबर भी बहुत बड़ा था 
एक आदमी जो बिन जूतों के
हाथ में कटोरा लिए खड़ा था 
वो ठंडक की कराह  से बोला
ये ठंडक भी अब जान लेके छोड़ेगा 
और न जाने कितने दिन 
सूरज हम से आँख मिचोली खेलेगा 

हमारे देश की सरकार 
सूरज से क्यूँ कुछ बात नहीं करती 
जिससे है यहाँ की सारी
जनता हैं डरती 
कहीं कोई समझौता
तो नहीं कर लिया है 
सरकार ने 
सूरज चाचा के दरबार में 

मेरे पास मेरा भाई भी खड़ा था 
वो बड़ा दयालु सा बन पड़ा था 
और कुछ कह पड़ा था 
हैं भगवान् क्यूँ इतनी सर्दी डालकर 
इसकी जान के पीछे पड़ा हैं,,,,
में भी कह पड़ा 
ये तो सिर्फ सर्दी से मरेगा
जिसको तू सिऱफ देख सकेगा 
पर नहीं देख सकेगा तू उनको 
जो तेरी आँख के सामने नहीं घटेगा 

यहाँ तो अनगिनत लोग कभी 
ठण्ड से मरते हैं 
तो कभी लू से 
कभी भूंख से मरते हैं 
तो कभी क़र्ज़ से 
कभी पुलिस थानों में मरते हैं 
तो कभी जंगल में 
कभी दिल्ली की सडकों  मरते हैं 
तो कभी वादी में 
यहाँ पे औरतों को
जिंदा जलाया जाता हैं 
तो दलितों और आदिवासियों को 
घर हॉस्टल से निकाल के नंगा घुमाया जाता है 

कभी यहाँ के लोगों पे पा लगाया जाता है 
बोलने वालों को आतंकवादी बताया जाता हैं 
कभी यहाँ पे मनोरमा पे आत्याचार होते हैं
और कभी नीलोफर -अशिया जान के रेपिस्ट-हत्यारे 
खुले घूमते फिरते हैं 
और  लोकतंत्र के  पिटारे में 
हम २४.७ का भॊन्पु भोंपते रहते हैं

इन सब को तो सिर्फ और सिर्फ मारा  जाता है 
कभी देसभक्ती के नाम पे 
और कभी झन्डों, गानों की शान पर

नहीं,कभी नहीं मारा जाता इनको 
कभी भी बरमेश्वर के नाम पे 
जो मारते हैं इंसान को 
हिन्दू पंडित ठाकुर की शान पे 

वो नहीं मरे 
वो नहीं मरे 
वो नहीं मरे 

जो मार डाले सारे हिंदुस्तान को 
जो मार डाले भारत के इंसान को   

ये हालत पैदा हो गए हैं 
जो सिर्फ और सिर्फ लड़ने का 
पैगाम छोड़ गए हैं 
तो साथी 
हम लड़ेंगे 
हम लड़ेंगे साथी 
तब तक 
जब तक कि 
हम सब आज़ाद नहीं हो जाते इस गुलामी से
गरीबी की गुलामी से
भूंख से
गैर बराबरी से
जातिवाद से
पित्रसत़़्ता से